Thursday 4 September 2014

आज के दिन शिक्षकों के प्रति सम्मान की परंपरा है....उनके बारे में अच्छी-अच्छी बातें करना ही शिष्टता है....किंतु न चाहते ही भी इसी दिन ऐसे शिक्षकों की याद भी बरबस ही मानस पटल पर तैर ही जाती है... जिन्होंने हमें अपनी खीज, निराशा याकंुठा का शिकार कभी-न-कभी बनाया ही होगा। आज शहरों में तो स्कूलों का पूरा ही परिदृश्य ही बदल चुका है लेकिन गाॅंव-कस्बों के स्कूलों में तो अधिकतर शिक्षकों का अधिनायकवाद ही चलता है।
पढाई में बहुत बुरा नहीं था...और अनुशासन में रहने में भी कभी कोई समस्या नहीं थी..फिर भी दो-तीन बार के थप्पड.-चांटे और बेंत की पिटाई बिना वजह मात्र शिक्षकों की गलतफहमियों के कारण झेलनी पड.ी। एक शिक्षक थे, लंबे-तगडे मोटी तलवारी मूंछे...हाथ में तीन फीट लंबी छडी.....अनुशासन अध्यापक कहलाते थे...मा,,,,चो...उनकी फेवरेट गाली थी जो कब किसे शिष्य को दे दी जाए....कुछ पता नहीं था। एक ओर थे जो अंग्रेजी पढाते थे....और बात-बात में शिष्य की माॅं-बहन के साथ यौनिक संबध स्थापित करने वाली गालियाॅं सुनाया करते थे...इतिहास पढाने वाले एक शिक्षक थे जो रात भर अपने गुड के कोल्हू की देखभाल करते थे और दिन में कक्षा में आकर सो जाया करते थे.....बच्चों को पहले ही बता दिया करते थे कि जब एक पैराग्राफ समाप्त हो जाए तो दूसरा बच्चा स्वयं दूसरा पैरा पढ ले...मेरी नींद डिस्टर्ब ना करे कोई... प्राइमरी स्कूल में एक दिन कक्षा में लगा छुटिटयों का चार्ट पढकर खुश हो रहा था...तभी झन्नाटेदार थप्पड जो हैड मास्साब ने रसीद किया था...उसकी गूंज आज तक कडवी यादों से मुक्ति नहीं दिला पाई है.... लेकिन शिक्षक तो महान होता है....अंतर हाथ सहार दे....बाहर बाहे चोट.....और चाहे वह चोट मासूम मन पर ही क्यों न जा लगे....

Wednesday 6 August 2014

हमारा वाल्ट डिजनी


पाठ्यपुस्तकों से बाहर भी किताबों की एक दुनिया होती है, 8-9 वर्ष की आयु में जब यह पता लगा तो पहला परिचय हुआ उस समय की हास्य पत्रिका ‘लोटपोट’ से....और उसमें भी सबसे मजेदार चरित्र चाचा चैाधरी और पिंकी से। प्राण कुमार शर्मा, जिन्हें हम प्राण के नाम से जानते थे, वास्तव भारत के वाल्ट डिजनी थे। जहाॅं पश्चिम के कार्टून चरित्र आकर्षक, बलिष्ठ और हथियारों से लैस होते थे वहीं सरलता से गुदगुदाने वाले वाले उनके साधारण कैरेक्टर सीधे-सादे और पास-पड़ोस से उठाए गए थे जो सहज हास्य उत्पन्न करते थे।


‘सरिता’ में आने वाला उनका एक और चरित्र था-श्रीमती जी, जिसमें शहरी पति-पत्नी के बीच की नोकझोंक और हास्य उत्पन्न करने वाली परिस्थितयां इतनी सहज होती थी, जैसी साधारणतः रोजमर्रा की जिंदगी में घटती रहती हैं।

किताब इतिहास की बड़ी बेवफा...रात भर रटी सवेरे सफा।.....शरारती किशोर बिल्लू जो ‘पराग’ में आता था मानों हम किशोरों के मन की उलझन ही बयान कर देता था। वाकई प्राण साहब बेजोड़ थे। आज यदि धड़ल्ले से उनके आर्टवर्क, कथ्य शिल्प और चरित्रों की नकल बाजार में हो रही है, ये भी उनकी सफलता का ही प्रमाण है।

अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब किसी की बेइज्जती करना हरगिज नहीं होता.....असीम त्रिवेदी के कार्टूनों पर उनकी यही प्रतिक्रिया थी। बीते कई सालों से वे कैंसर से पीड़ित थे। कल मंगलवार 5 अगस्त 2014 को उनका संसार से विदा हो जाना दुखद है....
हार्दिक श्रद्धांजलि।

© उमेश कुमार

क्या हमारी मंजिल भी हमें खोज रही है?

कितना अच्छा लगता है यह सोचना कि जिससे हम प्यार करें, वह भी हमें उतना टूटकर प्यार करें। जिसका साथ पाने की इच्छा हमारे मन में हो, उसके मन म...