ये जीत आम आदमी की...
राजनीति में आम आदमी का अस्तित्व और भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए यह जीत बहुत थी। भाजपा केवल और केवल जीतने के लिए चुनाव लड़ रही थी लेकिन आप पार्टी के लिए यह जिंदा रहने का संघर्ष था। भाजपा ने इस चुनाव को अपनी नाक का प्रश्न बना लिया था लेकिन आप पार्टी की ध्यान केवल अपने लक्ष्य की ओर लगा था। यदि इस चुनाव में वह हार जाती तो शायद पूरी तरह बिखर जाती। बचती भी तो उसे फिर से खडा करने में कितना समय लगता, बता पाना मुश्किल है।बिना किसी कोलाहल और शोर-शराबे के आप के वालंटियर अपना काम कर रहे थे। ये वालंटियर ही किसी पार्टी की रीढ़ की हड्डी होते हैं। कांग्रेस का सेवादल कभी ऐसे ही काम करता था, भाजपा के लिए संघ के स्वयंसेवक भी यही काम करते थे। सालों से पार्टी के लिए काम कर रहे भाजपा के कार्यकर्ताओं की घोर अनदेखी हुई और रातों-रात दूसरी पार्टियों के बगावती लोगों को शीर्ष पर बैठाने और टिकट बाॅंटने से भाजपा के कार्यकर्ता मायूसी और हताशा घिर गए और उन्होंने काम करने से पल्ला झाड़ लिया। नतीजतन भाजपा के नीचे से जमीन कब खिसक गई, उसे पता ही नहीं चला। इस चुनाव में भाजपा के प्रचार का स्तर अत्यंत छिछला और सतही रहा। अमित शाह और किरण बेदी की देखरेख में बने 4 कार्टूनों ने तो जनमानस को केजरीवाल के प्रति समर्थन और सहानुभूति से भर दिया। अन्ना को माला चढाना हो या बच्चों के सिर पर हाथ रखकर कसम खाने का मजाक उडाना रहा हो, दिल्ली सब देख रही थी। मोदी के रैलियों में उमड़ी भीड़ भी महज दिखावा बन गई और जनता ने उस आदमी को सिर पर बैठा लिया जो उन्हें अपना लगा, अपने जैसा लगा।
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