Monday 29 July 2019

क्या हमारी मंजिल भी हमें खोज रही है?

कितना अच्छा लगता है यह सोचना कि जिससे हम प्यार करें, वह भी हमें उतना टूटकर प्यार करें। जिसका साथ पाने की इच्छा हमारे मन में हो, उसके मन में भी हमारा साथ पाने की इच्छा हो! लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता है।

जिंदगी हर दिन अपने अलग-अलग रंगों के साथ हमारे सामने होती है। जीवन में कई दर्दनाक और दिल तोड़ देने वाली घटनाएं आती रहती हैं जैसे कि ब्रेकअप, तलाक, बीमारी, संबंधों में धोखा या पैसों की चिंता। बहुत बार हमें जिंदगी में कुछ भी अच्छा होता नहीं दिखता। ऐसा लगता है कि वक्त हमारे खिलाफ चल रहा है। कभी हम किसी छोटी-सी बात पर ही खुशी महसूस करने लगते हैं तो कभी हमको खुद को बेहद दुखी, बेकार या नाराज़ महसूस करते हैं। बहुत बार हमें आक्रोश होता है कि जिस चीज के हम हकदार थे, जिंदगी ने वह हमें नहीं दी और जो लोग हमसे प्रतिभा, ज्ञान और मेहनत में कमतर थे, उनको वह चीज बड़ी आसानी से मिल गई।

हम अक्सर लक्ष्य निर्धारित करते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि हमारा लक्ष्य लक्ष्य हमारी इच्छाओं के अनुसार ही तय किया गया हो। लेकिन यह महसूस करना सबसे बड़ी बात है कि आप जो भी पाना चाहते हैं, उसके लिए अपनी ओर से सबसे अच्छा कर रहे हैं। कोई जरूरी नहीं कि आप अपने प्रयास में सफल ही हों, लेकिन अपनी कोशिशों को महसूस करना और वे कितने मन से की जा रही हैं, आपसे बेहतर कोई नहीं जान सकता और जब आप खुद का विश्लेषण ईमानदारी से  करते हैं तो आप वास्तव में सफल होने की अधिक संभावना रखते हैं।

यदि आप हर दिन बेमन से उस काम को करने से थक गए हैं, जो आपको पसंद नहीं था लेकिन मजबूरी में करना पड़ा और आपको लगता है कि आप इस लायक हैं कि दूसरा कोई काम जोे उससे कहीं अधिक अच्छा है, तो उसकी ओर कदम बढ़ाइए।

वास्तव में हम बचपन से ही एक निश्चित पेशे के प्रति आकर्षित होते हैं। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके पास उस पेशे के लिए कुछ गुण या कौशल हैं तो आप उस काम को बोझ नहीं, आनंद लेकर करेंगे और आपको घंटो काम के बाद भी थकान न होगी।

उदाहरण के लिए, यदि आप आमतौर पर बच्चों के आसपास रहना पसंद करते हैं,उनका साथ आपको ऊर्जा से भरता है और आप उनके साथ एक विशेष संबंध रखते हैं, तो बेहतर है कि आपको बच्चों से संबंधित ही कोई पेशा होगा अपनाना चाहिए जैसे कि एक शिक्षक, बाल रोग विशेषज्ञ या कोई भी ऐसा काम जिसमें आप खुद को बच्चों के साथ व्यस्त रख सकें।

जिन चीज़ों की हम इच्छा करते हैं, उन्हें हासिल करना मुश्किल नहीं है, केवल अगर हम खुद को बदलने के लिए तैयार हैं। हम जिन चीजों की इच्छा रखते हैं, वे भी हमें उसी तरह से चाह रही होती हैं, जैसे हम उन्हें चाह रहे हैं। शायद इससे भी ज्यादा। अन्यथा, वे हमारी अपनी कल्पना में भी नहीं आती।

Wednesday 11 February 2015

ये जीत आम आदमी की...
राजनीति में आम आदमी का अस्तित्व और भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए यह जीत बहुत थी। भाजपा केवल और केवल जीतने के लिए चुनाव लड़ रही थी लेकिन आप पार्टी के लिए यह जिंदा रहने का संघर्ष था। भाजपा ने  इस चुनाव को अपनी नाक का प्रश्न बना लिया था लेकिन आप पार्टी की ध्यान केवल अपने लक्ष्य की ओर लगा था। यदि इस चुनाव में वह हार जाती तो शायद पूरी तरह बिखर जाती। बचती भी तो उसे फिर से खडा करने में कितना समय लगता, बता पाना मुश्किल है।
बिना किसी कोलाहल और शोर-शराबे के आप के वालंटियर अपना काम कर रहे थे। ये वालंटियर ही किसी पार्टी की रीढ़ की हड्डी होते हैं। कांग्रेस का सेवादल कभी ऐसे ही काम करता था, भाजपा के लिए संघ के स्वयंसेवक भी यही काम करते थे। सालों से पार्टी के लिए काम कर रहे भाजपा के कार्यकर्ताओं की घोर अनदेखी हुई और रातों-रात दूसरी पार्टियों के बगावती लोगों को शीर्ष पर बैठाने और टिकट बाॅंटने से भाजपा के कार्यकर्ता मायूसी और हताशा घिर गए और उन्होंने काम करने से पल्ला झाड़ लिया। नतीजतन भाजपा के नीचे से जमीन कब खिसक गई, उसे पता ही नहीं चला। इस चुनाव में भाजपा के प्रचार का स्तर अत्यंत छिछला और सतही रहा। अमित शाह और किरण बेदी की देखरेख में बने 4 कार्टूनों ने तो जनमानस को केजरीवाल के प्रति समर्थन और सहानुभूति से भर दिया।  अन्ना को माला चढाना हो या बच्चों के सिर पर हाथ रखकर कसम खाने का मजाक उडाना रहा हो, दिल्ली सब देख रही थी। मोदी के रैलियों में उमड़ी भीड़ भी महज दिखावा बन गई और जनता ने उस आदमी को सिर पर बैठा लिया जो उन्हें अपना लगा, अपने जैसा लगा।

Thursday 4 September 2014

आज के दिन शिक्षकों के प्रति सम्मान की परंपरा है....उनके बारे में अच्छी-अच्छी बातें करना ही शिष्टता है....किंतु न चाहते ही भी इसी दिन ऐसे शिक्षकों की याद भी बरबस ही मानस पटल पर तैर ही जाती है... जिन्होंने हमें अपनी खीज, निराशा याकंुठा का शिकार कभी-न-कभी बनाया ही होगा। आज शहरों में तो स्कूलों का पूरा ही परिदृश्य ही बदल चुका है लेकिन गाॅंव-कस्बों के स्कूलों में तो अधिकतर शिक्षकों का अधिनायकवाद ही चलता है।
पढाई में बहुत बुरा नहीं था...और अनुशासन में रहने में भी कभी कोई समस्या नहीं थी..फिर भी दो-तीन बार के थप्पड.-चांटे और बेंत की पिटाई बिना वजह मात्र शिक्षकों की गलतफहमियों के कारण झेलनी पड.ी। एक शिक्षक थे, लंबे-तगडे मोटी तलवारी मूंछे...हाथ में तीन फीट लंबी छडी.....अनुशासन अध्यापक कहलाते थे...मा,,,,चो...उनकी फेवरेट गाली थी जो कब किसे शिष्य को दे दी जाए....कुछ पता नहीं था। एक ओर थे जो अंग्रेजी पढाते थे....और बात-बात में शिष्य की माॅं-बहन के साथ यौनिक संबध स्थापित करने वाली गालियाॅं सुनाया करते थे...इतिहास पढाने वाले एक शिक्षक थे जो रात भर अपने गुड के कोल्हू की देखभाल करते थे और दिन में कक्षा में आकर सो जाया करते थे.....बच्चों को पहले ही बता दिया करते थे कि जब एक पैराग्राफ समाप्त हो जाए तो दूसरा बच्चा स्वयं दूसरा पैरा पढ ले...मेरी नींद डिस्टर्ब ना करे कोई... प्राइमरी स्कूल में एक दिन कक्षा में लगा छुटिटयों का चार्ट पढकर खुश हो रहा था...तभी झन्नाटेदार थप्पड जो हैड मास्साब ने रसीद किया था...उसकी गूंज आज तक कडवी यादों से मुक्ति नहीं दिला पाई है.... लेकिन शिक्षक तो महान होता है....अंतर हाथ सहार दे....बाहर बाहे चोट.....और चाहे वह चोट मासूम मन पर ही क्यों न जा लगे....

Wednesday 6 August 2014

हमारा वाल्ट डिजनी


पाठ्यपुस्तकों से बाहर भी किताबों की एक दुनिया होती है, 8-9 वर्ष की आयु में जब यह पता लगा तो पहला परिचय हुआ उस समय की हास्य पत्रिका ‘लोटपोट’ से....और उसमें भी सबसे मजेदार चरित्र चाचा चैाधरी और पिंकी से। प्राण कुमार शर्मा, जिन्हें हम प्राण के नाम से जानते थे, वास्तव भारत के वाल्ट डिजनी थे। जहाॅं पश्चिम के कार्टून चरित्र आकर्षक, बलिष्ठ और हथियारों से लैस होते थे वहीं सरलता से गुदगुदाने वाले वाले उनके साधारण कैरेक्टर सीधे-सादे और पास-पड़ोस से उठाए गए थे जो सहज हास्य उत्पन्न करते थे।


‘सरिता’ में आने वाला उनका एक और चरित्र था-श्रीमती जी, जिसमें शहरी पति-पत्नी के बीच की नोकझोंक और हास्य उत्पन्न करने वाली परिस्थितयां इतनी सहज होती थी, जैसी साधारणतः रोजमर्रा की जिंदगी में घटती रहती हैं।

किताब इतिहास की बड़ी बेवफा...रात भर रटी सवेरे सफा।.....शरारती किशोर बिल्लू जो ‘पराग’ में आता था मानों हम किशोरों के मन की उलझन ही बयान कर देता था। वाकई प्राण साहब बेजोड़ थे। आज यदि धड़ल्ले से उनके आर्टवर्क, कथ्य शिल्प और चरित्रों की नकल बाजार में हो रही है, ये भी उनकी सफलता का ही प्रमाण है।

अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब किसी की बेइज्जती करना हरगिज नहीं होता.....असीम त्रिवेदी के कार्टूनों पर उनकी यही प्रतिक्रिया थी। बीते कई सालों से वे कैंसर से पीड़ित थे। कल मंगलवार 5 अगस्त 2014 को उनका संसार से विदा हो जाना दुखद है....
हार्दिक श्रद्धांजलि।

© उमेश कुमार

Thursday 19 July 2012

ये जीवन है


आज आफिस पहुँचा तो बालकोनी में जाकर बाहर का नजारा देखने का मन हुआ। आॅफिस के ठीक सामने स्थित स्कूल की नवनिर्मित इमारत के सामने एक रिक्शा आकर रूका। उसमें एक बीस-बाईस वर्ष की नवयुवती बैठी थी। दिखने में आकर्षक थी। स्वाभाविक कौतूहल के चलते मैं देखता रहा। युवती रिक्शा में बैठी-बैठी ही स्कूल के वॉचमैन से कुछ पूछ रही थी। मैं सोचने लगा-कोई महारानी है क्या? जब स्कूल आई ही है तो क्यों नहीं नीचे उतरकर वॉचमैन के पास जाकर बात करती ...इतनी दूर से रिक्शा में ही बैठी सब कुछ जानना चाहती है।
वॉचमैन से बात कर रिक्शा से उतरने के लिए उसने एक पैर आगे बढ़ाया। चुस्त लेग-इन। ईमानदारी से कहूँ तो दूसरा पैर आगे आकर शायद चलने का अंदाज देखने की प्रतीक्षा..... अचानक मैं भौचक्का रह गया....लगा जैसे किसी पहाड़ से नीचे जा गिरा हूँ। दूसरा पैर आगे आया ही नहीं। फुर्ती से उठी बैसाखी ने उसके दूसरे पैर की जगह संभाल ली। चांद पर ग्रहण ......क्यूँ हुआ? कैसे हुआ, जो यह विकलांग है?
वॉचमैन ने दरवाजा नहीं खोला और उसे गेट-पास भरने को दिया। किसी तरह उसने खड़े-खड़े ही फार्म भरा, तब कही जाकर गेट खुला और वह स्कूल में दाखिल हुई।

Friday 13 July 2012

श्रद्धा, भक्ति, और पिकनिक, मस्ती का मिश्रण- कांवड़ लाकर जलाभिषेक करने का उत्सव एक बार फिर शुरू हो चुका है। हरिद्वार जाने वाले सारी सड़के भगवा रंग में रंग चुकी हैं। इन्हीं दिनों अराजकता और हुड़दंग के कारण कभी-कभी ये सड़के खूनी लाल भी हो जाती है। रेलगाड़ी की छतों पर बैठकर हरिद्वार जाने का थ्रिल रूड़की में कल एक की जान ले चुका है। तेज गति से बसों और मोटरसाइकिलों पर चलते ये शिवभक्त कई बार दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं तो कभी जनसामान्य से इनका जरा सी बात पर बवाल हो जाता है और ये शिव का तांडव नृत्य दिखा देते हैं। रास्ते भर सुस्वादु भोजन मुफ्त में उपलब्ध! मालिश और दवाइयों का इंतजाम .... शिवमय है सारा उत्तर भारत! पुलिस की जान शामत में ... रोके से ना रूकते ये छोरे ... खाकी वर्दी भगवा वर्दी से खौफजदा.. किसी तरह इस सुनामी के शांति से गुजर जाने का इंतजार करती रहती है...इन हालातों में भी धन्य हैं वे शिवभक्त जो बगैर किसी आत्मप्रदर्शन के बम भोले का उद्घोष करते विनम्रता के साथ अपने लक्ष्य की ओर शांति और श्रद्धा के साथ बढ़ते जाते हैं।

Saturday 25 February 2012

पुस्तक मेलाः सिनेमा और साहित्य

गाँव-देहात का एक बालक जे. के. रोलिंग की ‘हैरी पॉटर’ नहीं पढ़ सकता क्योंकि उसकी इतनी क्षमता  नहीं कि वह इसका हिंदी अनुवाद पढ़ने के लिए छह-सात सौ की मोटी रकम खर्च कर सके। उसके लिए सिनेमा ही वह माध्यम है जहाँ वह 20-30 रूपए खर्च कर वही आनंद उठा सकता है जो धनाढ्य वर्ग के किसी पब्लिक स्कूल में जाने वाले बच्चे को इस पुस्तक के मूल अंग्रेजी संस्करण को पढ़ने से मिलता है। मोटे तौर पर इस बात से समझा जा सकता है कि सिनेमा और साहित्य दोनों ही विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं किंतु सिनेमा साहित्य से अधिक पहुँच रखता है।
बेशक साहित्य सर्जनात्मकता, सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं के लिए जाना जाता है किंतु एक समय था जब हिंदी सिनेमा ने दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, जागते रहो, प्यासा, कागज के फूल, आवारा जैसी फिल्में दी जो निश्चित रूप से किसी यथार्थवादी उपन्यास से कम नहीं आँकी जा सकती। ये वो फिल्में थी सोद्देश्य बनाई गईं थी और इनका काम हल्के-फुल्के मनोरंजन तक ही सीमित नहीं था।
1986_Smita_Patil70 के दशक में जब समांतर सिनेमा अस्तित्व में आया तो निशांत, मंडी, अंकुर, दामुल, गर्म हवा, बाजार जैसी फिल्में सामने आईं। इन फिल्मों के निर्माण से जुड़े सभी लोग समाज के बुद्धिजीवी वर्ग से आते थे। ये वो लोग थे जिनके अनुसार फिल्म मनोरंजन का नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन की अलख जगाने का एक माध्यम बन सकती थी। इन लोगों में परिवर्तन की एक भूख थी, अभिनय कला की अभिव्यक्ति ही इनका उद्देश्य था। ओमपुरी, नसरूद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी इन फिल्मों के माध्यम से भीड़ से अलग नजर आए। ये बात दीगर है कि बाजार की माँग के सामने समांतर सिनेमा ने जल्दी ही दम तोड़ दिया और स्मिता पाटिल को भी-‘आज रपट जाएँ तो हमें ने उठाइयो..’ की गुहार लगानी पड़ी।
साहित्य और सिनेमा एक-दूसरे को कमोबेश प्रभावित करते आए हैं। देश में साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनी हैं। एक समय था जब कई लोकप्रिय कवि सिनेमा में सक्रिय थे। गोपालदास ‘नीरज’, कवि प्रदीप, मजरूह सुल्तानपुरी, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, शैलेंद्र, गुलजार, साहिर लुधियानवी जैसे कई नाम हैं जिन्होंने फिल्मों के लिए तो गीत लिखें किंतु साहित्य में भी अपना एक मुकाम हासिल किया।
2012 के पुस्तक मेले का विषय ‘हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष’ इन दो माध्यमों एक कड़ी में पिरोने का ही प्रयास है। इस बार किसी साहित्यिक विषय या किसी साहित्यकार को नहीं,  सिनेमा जैसे साधारण विषय को चुना गया है, जिसे वर्तमान साहित्यकार अव्वल तो दृश्य साहित्य की श्रेणी में रखने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं और मानते हैं भी तो दोयम दर्जे का।

क्या हमारी मंजिल भी हमें खोज रही है?

कितना अच्छा लगता है यह सोचना कि जिससे हम प्यार करें, वह भी हमें उतना टूटकर प्यार करें। जिसका साथ पाने की इच्छा हमारे मन में हो, उसके मन म...