Thursday 19 July 2012

ये जीवन है


आज आफिस पहुँचा तो बालकोनी में जाकर बाहर का नजारा देखने का मन हुआ। आॅफिस के ठीक सामने स्थित स्कूल की नवनिर्मित इमारत के सामने एक रिक्शा आकर रूका। उसमें एक बीस-बाईस वर्ष की नवयुवती बैठी थी। दिखने में आकर्षक थी। स्वाभाविक कौतूहल के चलते मैं देखता रहा। युवती रिक्शा में बैठी-बैठी ही स्कूल के वॉचमैन से कुछ पूछ रही थी। मैं सोचने लगा-कोई महारानी है क्या? जब स्कूल आई ही है तो क्यों नहीं नीचे उतरकर वॉचमैन के पास जाकर बात करती ...इतनी दूर से रिक्शा में ही बैठी सब कुछ जानना चाहती है।
वॉचमैन से बात कर रिक्शा से उतरने के लिए उसने एक पैर आगे बढ़ाया। चुस्त लेग-इन। ईमानदारी से कहूँ तो दूसरा पैर आगे आकर शायद चलने का अंदाज देखने की प्रतीक्षा..... अचानक मैं भौचक्का रह गया....लगा जैसे किसी पहाड़ से नीचे जा गिरा हूँ। दूसरा पैर आगे आया ही नहीं। फुर्ती से उठी बैसाखी ने उसके दूसरे पैर की जगह संभाल ली। चांद पर ग्रहण ......क्यूँ हुआ? कैसे हुआ, जो यह विकलांग है?
वॉचमैन ने दरवाजा नहीं खोला और उसे गेट-पास भरने को दिया। किसी तरह उसने खड़े-खड़े ही फार्म भरा, तब कही जाकर गेट खुला और वह स्कूल में दाखिल हुई।

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