नित नया शून्य जो दिन-प्रतिदिन बड़ा होता जाता है। अपने चारों ओर खड़ी दीवारें जो धीरे-धीरे ऊँची होती जा रही हैं। इतनी ऊँची कि अब कुछ दिनांे बाद लगता है कि आशा की कोई किरण भी उस तक मुश्किल पहुँच पाएगी। हर रात के बाद एक सवेरा होता है किंतु काल-कोठरी के कैदी के लिए कोई सवेरा नहीं होता। उसके लिए होती है बस एक स्याह रात....... दिन रात!
भागना और भागते जाना , शायद यही नियति बन चुकी है। किससे भाग रहा हूँ? अपने वर्तमान से या उज्जवल भविष्य का पीछा करने के लिए ये अनवरत दौड़ जारी है। हर दिन शुरू होता है और उदास शाम के साथ समाप्त हो जाता है। शरीर और मन दोनों ही थक जाते हैं और लगता है वर्षांे की निष्फल अवधि में एक दिन और आज फिर जुड़ गया।
ये खीज..... ये निराशा.... ये हताशा...... ये असफलता ....... एक गहरे काले निराशा के मलबे में बदल जाती है और मन के सुप्त ज्वालामुखी की तली में जमती चली जाती है। फिर यकायक एक दिन वो ज्वालामुखी फूट पड़ता है, कहीं भी, कभी भी, किसी ओर भी। सालों का जमा वो मैल बाहर निकलने को दौड़ पड़ता है और हर तरफ लावा ही लावा। जो शायद जला देना चाहता है अपने आस-पास की हर रचना को। चूस लेना चाहता है सारी तरलता को, सुखा देना चाहता है सारी हरियाली को, छुपा देना चाहता है अपने गर्दों-गुब्बार से रोशनी की हर किरण को और आसमान में दूर-दूर तक फैलकर करना चाहता है प्रलय का काला अंधेरा।
यह क्या है?............. आखिर क्या है यह ? कुंठा, निराशा, हताशा या फिर हार जाने का आक्रोश। इसमें कहीं कोई स्निगधता नहीं, कोई कोमलता नहीं, कोई आशा नहीं। बस है मन की एक टूटन, एक निराशा, एक कर्कशता, एक रुखापन और शायद इन सबसे भी बुरा कही कुछ! जो खड़ी करता है अविश्वास की और ऊँची दीवारें। सबके लिए। हम किसी को न देख सकें। कोई हमें ना देख सके। यही तो होती है एकाकी जिंदगी...........
भागना और भागते जाना , शायद यही नियति बन चुकी है। किससे भाग रहा हूँ? अपने वर्तमान से या उज्जवल भविष्य का पीछा करने के लिए ये अनवरत दौड़ जारी है। हर दिन शुरू होता है और उदास शाम के साथ समाप्त हो जाता है। शरीर और मन दोनों ही थक जाते हैं और लगता है वर्षांे की निष्फल अवधि में एक दिन और आज फिर जुड़ गया।
ये खीज..... ये निराशा.... ये हताशा...... ये असफलता ....... एक गहरे काले निराशा के मलबे में बदल जाती है और मन के सुप्त ज्वालामुखी की तली में जमती चली जाती है। फिर यकायक एक दिन वो ज्वालामुखी फूट पड़ता है, कहीं भी, कभी भी, किसी ओर भी। सालों का जमा वो मैल बाहर निकलने को दौड़ पड़ता है और हर तरफ लावा ही लावा। जो शायद जला देना चाहता है अपने आस-पास की हर रचना को। चूस लेना चाहता है सारी तरलता को, सुखा देना चाहता है सारी हरियाली को, छुपा देना चाहता है अपने गर्दों-गुब्बार से रोशनी की हर किरण को और आसमान में दूर-दूर तक फैलकर करना चाहता है प्रलय का काला अंधेरा।
यह क्या है?............. आखिर क्या है यह ? कुंठा, निराशा, हताशा या फिर हार जाने का आक्रोश। इसमें कहीं कोई स्निगधता नहीं, कोई कोमलता नहीं, कोई आशा नहीं। बस है मन की एक टूटन, एक निराशा, एक कर्कशता, एक रुखापन और शायद इन सबसे भी बुरा कही कुछ! जो खड़ी करता है अविश्वास की और ऊँची दीवारें। सबके लिए। हम किसी को न देख सकें। कोई हमें ना देख सके। यही तो होती है एकाकी जिंदगी...........
स्वत: स्फूर्त, संवेदनशील, आडंबरहीन प्रस्तुति है, यह आपकी, ......
ReplyDeleteDhanyawaad..!!
Delete