Saturday 25 February 2012

पुस्तक मेलाः सिनेमा और साहित्य

गाँव-देहात का एक बालक जे. के. रोलिंग की ‘हैरी पॉटर’ नहीं पढ़ सकता क्योंकि उसकी इतनी क्षमता  नहीं कि वह इसका हिंदी अनुवाद पढ़ने के लिए छह-सात सौ की मोटी रकम खर्च कर सके। उसके लिए सिनेमा ही वह माध्यम है जहाँ वह 20-30 रूपए खर्च कर वही आनंद उठा सकता है जो धनाढ्य वर्ग के किसी पब्लिक स्कूल में जाने वाले बच्चे को इस पुस्तक के मूल अंग्रेजी संस्करण को पढ़ने से मिलता है। मोटे तौर पर इस बात से समझा जा सकता है कि सिनेमा और साहित्य दोनों ही विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं किंतु सिनेमा साहित्य से अधिक पहुँच रखता है।
बेशक साहित्य सर्जनात्मकता, सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं के लिए जाना जाता है किंतु एक समय था जब हिंदी सिनेमा ने दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, जागते रहो, प्यासा, कागज के फूल, आवारा जैसी फिल्में दी जो निश्चित रूप से किसी यथार्थवादी उपन्यास से कम नहीं आँकी जा सकती। ये वो फिल्में थी सोद्देश्य बनाई गईं थी और इनका काम हल्के-फुल्के मनोरंजन तक ही सीमित नहीं था।
1986_Smita_Patil70 के दशक में जब समांतर सिनेमा अस्तित्व में आया तो निशांत, मंडी, अंकुर, दामुल, गर्म हवा, बाजार जैसी फिल्में सामने आईं। इन फिल्मों के निर्माण से जुड़े सभी लोग समाज के बुद्धिजीवी वर्ग से आते थे। ये वो लोग थे जिनके अनुसार फिल्म मनोरंजन का नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन की अलख जगाने का एक माध्यम बन सकती थी। इन लोगों में परिवर्तन की एक भूख थी, अभिनय कला की अभिव्यक्ति ही इनका उद्देश्य था। ओमपुरी, नसरूद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी इन फिल्मों के माध्यम से भीड़ से अलग नजर आए। ये बात दीगर है कि बाजार की माँग के सामने समांतर सिनेमा ने जल्दी ही दम तोड़ दिया और स्मिता पाटिल को भी-‘आज रपट जाएँ तो हमें ने उठाइयो..’ की गुहार लगानी पड़ी।
साहित्य और सिनेमा एक-दूसरे को कमोबेश प्रभावित करते आए हैं। देश में साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनी हैं। एक समय था जब कई लोकप्रिय कवि सिनेमा में सक्रिय थे। गोपालदास ‘नीरज’, कवि प्रदीप, मजरूह सुल्तानपुरी, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, शैलेंद्र, गुलजार, साहिर लुधियानवी जैसे कई नाम हैं जिन्होंने फिल्मों के लिए तो गीत लिखें किंतु साहित्य में भी अपना एक मुकाम हासिल किया।
2012 के पुस्तक मेले का विषय ‘हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष’ इन दो माध्यमों एक कड़ी में पिरोने का ही प्रयास है। इस बार किसी साहित्यिक विषय या किसी साहित्यकार को नहीं,  सिनेमा जैसे साधारण विषय को चुना गया है, जिसे वर्तमान साहित्यकार अव्वल तो दृश्य साहित्य की श्रेणी में रखने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं और मानते हैं भी तो दोयम दर्जे का।

2 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  2. उत्‍साहवर्धन के लिए आपका धन्‍यवाद

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